प्यास  Prashant Kumar Dwivedi

प्यास

Prashant Kumar Dwivedi

हा! किसी के केश पर संकल्प सारे खो गए!
और तृषा की आग से श्मशान जीवित हो गए।
प्रेम की वेदी पे मैं भी आहुति बनकर मिटा,
और रहस्यों के जटिल तूफान मुझमे सो गए।

भावों की कोमल लताओं को सहारा न मिला,
कल्पना मृगनैनियों की आस से बँधी रही!!
हाँ सच तलब के मारे उसने महख़ाने तो बदले पर,
रिन्द की चाहत हमेशा प्यास से बँधी रही।

जिस से हम-तुम थे बँधे,नेह की वो डोर टूटी।
साथ जीने-मरने की,हो गयी सौगंध झूठी।
नियति ने प्यासा रखा है,दोष ये मेरा नहीं,
मेरे सपनो की गगरिया,जाके पनघट पर ही टूटी|

कच्चे हृदय में रिस रही,घुट रही ये वेदना,
तो हमेशा भाग्य के परिहास से बँधी रही।
हाँ सच तलब के मारे उसने महख़ाने तो बदले पर,
रिन्द की चाहत हमेशा प्यास से बँधी रही।

वो रगों में उमड़ते तूफान की खामोशियाँ।
आँख में रेशम के डोरे,अक्स की वो सुर्खियाँ।
और इधर सूखे हुए होठों की बेबस गीतिका,
आहें,तड़पन,आँसू और मेरी तन्हाईयाँ।

क्या करूँ ऐसा कि तुम्हें मैं भूल जाऊँ,
मेरी तो हर योजना इतिहास से बँधी रही।
हाँ सच तलब के मारे उसने महख़ाने तो बदले पर,
रिन्द की चाहत हमेशा प्यास से बँधी रही।

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