कोई नहीं है बुरा धरा पर  Prashant Kumar Dwivedi

कोई नहीं है बुरा धरा पर

Prashant Kumar Dwivedi

कोई नहीं है बुरा धरा पर।
कोई नहीं है गलत सरासर।

छला गया जो सदियों पहले,वही आज सबको छलता है।
क्रिया-प्रतिक्रिया नियम अनूठा,चक्र ये अविरत ही चलता है।
टूटे सपनों की पीड़ाएँ हुई विवश विध्वंसों को।
अकाशवाणियों के भय ने निर्मित किया है कंसो को।

संघर्षों में तेल देह की,प्राण निरंतर जलते हैं।
उस रौशनी के परकोटे में अँधियारे पलते हैं।

भय के वही अँधेरे भागे आज किसी के रत्न चुराकर।
कोई नहीं है बुरा धरा पर,कोई नहीं है गलत सरासर।

स्वार्थ सधे जिससे वो अच्छा।
नहीं सधे तो नहीं है सच्चा।

सभी समझते हैं सच यारों चरण चूमते माथों का।
लेकिन वो भी दास ही है,परिस्थिति के हाथों का।

ये सारे आडम्बर जीना कौन भला मन से चाहेगा।
लेकिन गर ये पथ छोड़े तो पीछे भी तो रह जायेगा।

किसी दूसरे को घातक है,जो कुछ मेरे लिए है हितकर।
कोई नहीं है बुरा धरा पर,कोई नहीं है गलत सरासर।

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