अप्सरा  Prashant Kumar Dwivedi

अप्सरा

Prashant Kumar Dwivedi

तुम समझते हो मैं कोई अप्सरा हूँ,
मैं तो अस्थि-मज्जा से बनी,
एक देह भर हूँ
ये तुम्हारा चीखता,
विक्षिप्त मन ही है ऋषि,
ये तुम्हारे ही अचेतन का सृजन है
जो धधकती घोर तप की राख में भी,
अग्नि की अधबुझी अंगीठियों सी,
जल रही है,
ये तुम्हारी वासना की प्यास भर है,
जो तुम्हें मैं इतनी सुन्दर दिखती हूँ
अन्यथा क्या है धरा मुझमे कहो
देह के माँसल उभारों से अधिक,
हे ऋषि!
अनुराग ही जो भोग लेते
जान जाते दर्पणों के सत्य को,
जान लेते देह की व्यर्थता को,
जान लेते सुरभि के कटु स्वाद को भी,
जान लेते तुम निरर्थकता उसी
शास्त्रोक्त भय की
टूट न जाये ये खोखला सा ब्रह्मचर्य,
आज देखो छटपटाती कामना को,
जिसमें न जाने कितने ही जन्मों की है प्यासें,
जिसमे न जाने कितने पश्चाताप बैठे,
जिसमे न जाने कितनी मौनों की घुटन है,
मैं इन्हीं पीड़ाओं की प्रतिक्रिया भर हूँ,
ये तुम्हारा अहम् ही होगा यदि,
अब भी तुम स्वीकार न करो कि
सत्य ये पीड़ाएँ हैं,
तप नहीं!
अब मान भी लो,
अहम् और तप दोनों भंग हुए।

अपने विचार साझा करें




3
ने पसंद किया
1460
बार देखा गया

पसंद करें

  परिचय

"मातृभाषा", हिंदी भाषा एवं हिंदी साहित्य के प्रचार प्रसार का एक लघु प्रयास है। "फॉर टुमारो ग्रुप ऑफ़ एजुकेशन एंड ट्रेनिंग" द्वारा पोषित "मातृभाषा" वेबसाइट एक अव्यवसायिक वेबसाइट है। "मातृभाषा" प्रतिभासम्पन्न बाल साहित्यकारों के लिए एक खुला मंच है जहां वो अपनी साहित्यिक प्रतिभा को सुलभता से मुखर कर सकते हैं।

  Contact Us
  Registered Office

47/202 Ballupur Chowk, GMS Road
Dehradun Uttarakhand, India - 248001.

Tel : + (91) - 8881813408
Mail : info[at]maatribhasha[dot]com