फ़र्जी राष्ट्रवाद Prashant Kumar Dwivedi
फ़र्जी राष्ट्रवाद
Prashant Kumar Dwivediजब तर्क क्षीण हो जाये ,
बचकाने उन्मादों में।
जब गाली ही भाषा हो,
सभ्यों के संवादों में।
जब तर्क,सत्य की मीमांसायें,
बंद पड़ी हो तालों में।
जब वनदेवी न फर्क कर सके,
सिंहों और शृगालों में।
जब पत्रकारिता राजनीति के,
चरणों में झुक जाती हो।
जब लेखनियों की स्याही से,
पंथों की बू आती हो।
जब प्रश्न पूछना सत्ता से,
अपराधी कहलाना हो।
जब चाटुकारिता देशभक्ति का
एक मात्र पैमाना हो।
जब लाचारों की लाशें,
सगड़ी से ढोई जाती हों।
जब भूखे पेटों की चीखें शोरों
में खो जाती हों।
जब 'मुक्तिबोध' और 'नागार्जुन',
अपराधी कहलाते हों।
और बिना रीढ़ के कलमकार,
पद्म श्री पा जाते हों।
जब 'राजद्रोह' ही 'राष्ट्रद्रोह' की
रिभाषा बन जाती हो।
जब आलोचक की गर्दन पर
तलवारें तन जाती हों।
इस अजब "राष्ट्रवाद" का हमसे,
वाद भला कैसे होगा।
तब हमसे चुप रहने का,
अपराध भला कैसे होगा।
अपने विचार साझा करें
इमरजेंसी के वक़्त हर उस आवाज़ को राष्ट्रद्रोही घोषित किया जाने लगा जो सत्ता के विरुद्ध उठती थी। 2014 के चुनावों के बाद फिर उसी राजनैतिक संस्कृति ने जन्म लिया,हालाँकि अब सत्ताधारी नेतृत्व ने नहीं बल्कि उस विचारधारा की आड़ में कट्टरपंथ की दुकान लगाने वालों ने 'जवाबदेही के स्थान पर निशानदेही' शुरू की! वहां से इस विषय को चुना है मैंने इस कविता के लिए।