ये तुम्हारे राग अंधे Prashant Kumar Dwivedi
ये तुम्हारे राग अंधे
Prashant Kumar Dwivediये तुम्हारे राग अंधे, मैं तो भई गाने से रहा।
तुम मुझे समझोगे नहीं, मैं भी समझाने से रहा।
सच बहुत वैसा नहीं, जो भला महसूस हो,
और मैं भी जन्नतों के ख्वाब दिखाने से रहा।
वो तुम्हारी महफ़िलें और ये है मेरी झोपड़ी,
तुम यहाँ आने से रहे, मैं वहाँ आने से रहा।
स्वर्ण मिलता है कहाँ कलम की सच्चाइयों को,
और मैं दरबार के गीत भी गाने से रहा।
पाँव के छालों ने हमसे रास्ते में क्या कहा,
गोया अब ये दास्ताँ मैं तुमको सुनाने से रहा।