हवा के साथ बह जाना  Prashant Kumar Dwivedi

हवा के साथ बह जाना

Prashant Kumar Dwivedi

हवा के साथ बह जाना तो बेहतर है,
कोई तिनका भी नहीं चुभता है
कोई पत्ता भी नहीं,कंकर भी नहीं,
यहाँ तक कि हवा भी नहीं 
करती है सवाल कोई,
उल्टे ले जायेगी मुझको बहुत दूर तलक़,
हो सकता है किसी टीले पर,
या किसी शिखर तक भी,
मगर मैं अभी तक उस ठूँठ पर बैठा हूँ,
जिसकी जड़ों से बँधी मिट्टी में,
कभी 'कबीर',कभी 'रैदास' कभी
'ग़ालिब' कभी 'मीर'
कभी 'गणेश शंकर विद्यार्थी' कभी 'गाँधी'
कभी 'मुक्तिबोध'  कभी 'निराला'
कभी 'बाबा नागार्जुन' तो कभी 'ओशो'
खाद बनकर खप गए।
यहाँ हवा मुझसे तूफान जैसा सुलूक करती 
है,क्योंकि मैं उससे आँखे मिला रहा हूँ।
सवाल कर रहा हूँ।
तिनके भी मेरे कद से ऊपर उड़ते हैं,
कैसे समझाऊं मैं इस हवा को कि,
उड़ना तो मैं भी चाहता हूँ,मगर 
एक शर्त है,वो कभी रुख नहीं बदलेगी,
क्योंकि गर ये बदलेगी तो उसके साथ वापस
मुझे भी बहना होगा,और वापस लौटना होगा
इसी रास्ते,जिसमें यह ठूँठ पड़ता है।
तब यही ठूँठ जो जर्जर तो है लेकिन
निष्पक्ष है,तटस्थ है,संजीदा है!
मुझसे सवाल करेगा 'गए कहाँ और अब लौट कहाँ रहे हो?'
मेरी अंतरात्मा निरुत्तर होगी।
उससे बेहतर है कि मैं इन हुतात्माओं के संग
इसी पेड़ की जड़ में मिट्टी बनकर एकाकार हो जाऊँ।
कम से कम मेरी आत्मा निरुत्तर तो न होगी।
शायद यही मोक्ष है।

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