हे सखे! अब ले न चलना  Prashant Kumar Dwivedi

हे सखे! अब ले न चलना

Prashant Kumar Dwivedi

हे सखे! अब ले न चलना नेह के बाज़ार में।
तुम भी टूटे,मैं भी उजड़ा इस नए व्यापार में।
रूप के उस सप्तवर्णी रेशमी आंचल को थामे,
चल पड़े आवेग के अश्वों को हम गति-ज्ञान देने।
भाग्य के लेखे भुलाकर,
कोल-कल्पित-कल्पनाओं को चले थे
वास्तविकता से बड़ा सम्मान देने।
एक साधु कह रहा था पथ ये नीरस है न जाओ,
कहाँ उसकी बात मानी।
तब कहाँ उपनिषद के श्लोक हमको समझ आये,
तब तो मन में चल रही थी हीर रांझे की कहानी
उन कुंवारे निर्णयों का आज ये परिणाम देखो,
ह्रदय में एक पुष्प ले चलना पड़ा अंगार में।
हे सखे! अब ले न चलना नेह के बाजार में ।
जितनी नियति ने लिखे सोपान सारे हो चुके।
पाया क्या कुछ भी नहीं,स्वयं को भी खो चुके।
हमसे तो वो चाँद रूठा,सावनी संगीत रूठे।
ऐसा लगा मानो जगे और सुबह का स्वप्न टूटे।
दर्द की लड़ियाँ पिरोई, आँसुओं के गीत गाये,
क्या मिला,सौंप कर सबकुछ उसे,अब भी हो उधार में।
हे सखे! अब ले न चलना नेह के बाजार में।

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