मरघट का अट्टाहास  Prashant Kumar Dwivedi

मरघट का अट्टाहास

Prashant Kumar Dwivedi

हे मनुज!श्मशान हूँ मैं,देख अट्टहास मेरा।
स्वप्न में खोया हुआ तू कर रहा परिहास मेरा।
 

छल के इस संसार में,ऊँची तेरी साख होगी।
ये तेरी हस्ती समझ ले,आ यहीं पर राख होगी।
 

दर्प के अट्टालिकाएं,गर्व के प्रतिमान सारे।
सौंप कर वंशजों को,आएगा तू मेरे द्वारे।
 

माया तेरी चेरी है,अद्भुत तेरा सामर्थ्य है।
किन्तु सीमा है तेरी,तू जीव एक मर्त्य है।
 

तू विश्व का सम्राट है,फिर भी बनेगा दास मेरा।
हे मनुज!मरघट हूँ मैं,देख अट्टहास मेरा।
 

विजय की गाथाएं भी,ह्रदय की व्यथाएं भी।
आ जलेंगी इस चिता में,तेरी सब चिंताएं भी।
 

जो मिले हैं फूल भी,जो चुभें है शूल भी।
शिखर के सम्मान भी,अपमान की वो धूल भी।
 

स्वप्न जो पुरे हुए,आधी अधूरी कल्पनायें।
आकार जो न ले सकीं,वो तड़पती भावनाएं।
 

तेरा तन-मन,रोम-रोम,सब बनेंगी ग्रास मेरा।
हे मनुज!श्मशान हूँ मैं,देख अट्टहास मेरा।
 

जिसने सब कुछ है रचा,मैं भी उसकी ही कृति हूँ।
देख उसकी ये कृति,हर कृति की मैं इति हूँ।
 

वो चराचर का अनोखा,गज़ब रचनाकार भी है।
और मेरे रूप में वो सृष्टि का संहार भी है।
 

तेरा मुझमे लीन होना भी है उसका सृजन कोई।
पार इस चिता के,वो देगा नव-जीवन कोई।
 

मान जा मैं सत्य हूँ,कर भी ले विश्वास मेरा।
हे मनुज!मरघट हूँ मैं,देख अट्टाहास मेरा!
 

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