अजन्मा सच Prashant Kumar Dwivedi
अजन्मा सच
Prashant Kumar Dwivediधुली-धुली ये धवल चाँदनी,रूठी बैठी है।
दर्पण के आगे कोल-कल्पना, टूटी बैठी है।
चाँद खड़ा सौ शिकवे लेकर है मेरे सिरहाने।
रातरानी की रेशमी खुशबू आई मुझे बुलाने।
अंधियारे में चमक रहा ये चपल कुँवारा कोहरा।
मैं ही बेबस जड़ बैठा, भावो में हूँ ठहरा।
इंतज़ार भी नहीं,आस भी नहीं, मगर।
बैठी भोली रात लिए ये स्वप्न सुघर।
फिर से गीत जो गाऊँ,तो क्या सुनने आओगे फिर!
एक अधूरे ख्वाब के लिए, एक अजन्मे सच की खातिर!
छलकी मेरी भावों की गगरी जो तट पर।
फिर जो मन अटक गया, उलझी लट पर।
जो फिर से संकोचों से मेरे पाँव कंपे।
जो फिर से लम्बे क़दमों तेरी डगर नपे।
जो फिर सालों बाद तुम्हें देखूं छिपकर।
जो फिर से अनहद बहे नेह-निर्झर।
क्या फिर से सावन आएगा, क्या फिर से बादल आएंगे घिर।
एक अधूरे ख्वाब के लिए, एक अजन्मे सच की खातिर।