क्या छुपाएँ-क्या बताएँ Prashant Kumar Dwivedi
क्या छुपाएँ-क्या बताएँ
Prashant Kumar Dwivediरवि शिशु की प्रात भी।
अमावस की रात भी
मन में दबी हुई प्रीत भी।
अधरों के अनकहे गीत भी
विवशताओं की अभिलाषा भी।
बाल सुलभ जिज्ञासा भी।
समाधि की शांति भी।
कामना की क्लांति भी।
अश्रु से भीगी व्यथाएं,पीर की पावन कथाएँ।
सब समेटे है हृदय ये,क्या छुपाएँ क्या बताएँ।
स्वप्न ये स्वछन्द भी।
वास्तविक प्रतिबन्ध भी।
निराश-हताश युवा मन भी।
खिलौने बेचता बचपन भी।
निर्णय के ठहराव भी।
असमंजस के भाव भी।
मीठे मधु की धार भी।
सागरों का क्षार भी।
संकल्पों की सूची या यौवन की वो भोली खतायें।
सब समेटे है हृदय ये,क्या छुपाएँ क्या बताएँ।
सत्ता का अहंकार भी।
अधिकारों का व्यभिचार भी!
अनमोल सी ये नेह भी।
नारी की बिकती देह भी।
सीमाओं का बोध भी।
अति के प्रति प्रतिशोध भी।
वीर की तलवार भी।
प्रेयसी का श्रृंगार भी।
सवस्तुति की आत्म-मुग्धता,प्रयश्चितों की मूर्खताएँ।
सब समेटे है हृदय ये,क्या छुपाएँ,क्या बताएँ।
स्वच्छ स्पष्ट अल्पना भी,
कोल-कल्पित कल्पना भी।
थके पथिक की प्यासें भी
विरहन की टूटी आसें भी।
मीरा की वीणा भी।
राधा की पीड़ा भी।
योग सिखाती गीता भी।
वियोग में रोती सीता भी।
परमात्मा का न्याय और नियति की विषमताएं।
सब समेटे है ह्रदय ये,क्या छुपाएँ-क्या बताएँ।