तुझसे छुपाने क्या-क्या! Prashant Kumar Dwivedi
तुझसे छुपाने क्या-क्या!
Prashant Kumar Dwivediक्या कहें आये थे तुझको बताने क्या-क्या!
और अब देख लगे तुझसे छुपाने क्या क्या!
बेरुखी, दिल्लगी, इंतजार, शेर-ओ-सुखन,
हुस्न के पड़ते हैं नाज़ उठाने क्या क्या!
कभी गुल तो कभी चंदा तो कभी ताजमहल,
उस हसीना को भी कहते हैं दीवाने क्या क्या!
शायरी छोड़ दें औ' मैकदे को भूलें हम,
ऐ परी तू ही बता तेरी भी माने क्या क्या!
बेतकल्लुफ़ हो हम उसकी गली क्या गुजरे,
सबने यारों हैं बना डाले फ़साने क्या-क्या!!
कभी जंगें,कभी अमन,कभी जंगों की तैयारी,
हमने भी देख लिए यार ज़माने क्या-क्या!
कभी तो मुँह पे ही थूकें तो कभी थूक के चाटें,
ये सियासत भी लगी दाव लगाने क्या क्या!
अस्पताल,सड़क और यूनिवर्सिटी,
भूख को आये हैं ये ख्वाब दिखाने क्या क्या!
जंगल कभी बस्ती कभी गुलशन कभी सहरा,
इन फकीरों के भी होते हैं ठिकाने क्या-क्या!
कभी राँझा कभी पागल कभी काफिर कभी बन्दा,
लोग कहते हैं हमें और न जाने क्या क्या!
इश्क़-ए-रुसवाई या कि फरेब किस्मत के,
गिनायें तुमको यार जख्म पुराने क्या क्या!
