अश्रुओं में क्षार कैसे आ गया  Prashant Kumar Dwivedi

अश्रुओं में क्षार कैसे आ गया

Prashant Kumar Dwivedi

देह के इस देवता के प्राण तक चीत्कार उठे,रूप के पत्थर पे इतना प्यार कैसे आ गया।
इस सुकोमल ह्रदय के कण-कण में है अमृत भरा,फिर तुम्हारे अश्रुओं में क्षार कैसे आ गया।

कोमल से मन में चुभ रहे प्रयश्चितों के घाव देखो।
उपेक्षाओं को समर्पित ये अनूठे भाव देखो।
चंचल सलोने नैनों में ये व्यथा के भाव गहरे!
अपनी निजता पर पराई कल्पना के सख्त पहरे।
हर घड़ी मुस्काने वाले रात भर क्यों रो रहे हैं।
जगती आँखों में भला ये दर्द कैसे सो रहे हैं।

हलकी नींदों से जो हो जाती थी बंद कभी, नाजुक सी इन पलकों पे इतना भार कैसे आ गया।
इस सुकोमल हृदय के कण-कण में है अमृत भरा,फिर तुम्हारे अश्रुओं में क्षार कैसे आ गया।

तुम सदा पावन ही थे,फिर स्वयं के प्रति रोष क्या है।
पुष्प शैलों सा हो निष्ठुर, तो तुम्हारा दोष क्या है।
नश्वरी श्रृंगार पर क्यों स्वप्न शाश्वत हारते हो।
वो कभी ना था तुम्हारा,क्यों नहीं स्वीकारते हो।
उफनाती लहरों को क्यों तुमने तलछट बना दिया।
लहराते सागर को क्यों सूना पनघट बना दिया।
कामनाओं का मधुर रसकोष देखो सूखता है।
कुंठाओं से झुलस सुकुमार तन ये रुखता है।

हिरणी सी जो चंचल रहीं,दर्पण सी जो निश्छल रहीं,उन सलोनी आँखों में अंगार कैसे आ गया।
इस सुकोमल ह्रदय के कण-कण में है अमृत भरा,फिर तुम्हारे अश्रुओं में क्षार कैसे आ गया।

मदिरा से क्या भर सकेगा,रिक्त जो मन हो गया।
धुंए से देखो ये कैसा खोखला तन हो गया।
तारा माँ की आँखों का बुझता दिया क्यों बन रहा।
टूटता क्यों है भला,जिसे पिता ने पर्वत कहा।
क्यों ह्रदय-सम्राट बोलो,भिक्षुकों सा रो रहा है।
सच कहो! क्या यही होना चाहिए जो हो रहा है।

ईश्वर के दिए जीवन को तुम व्यर्थ यूँ गँवा सको, तुम्हारे हिस्से में ये अधिकार कैसे आ गया।
इस सुकोमल ह्रदय के कण-कण में है अमृत भरा,फिर तुम्हारे अश्रुओं में क्षार कैसे आ गया।

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