अल्हड़ कवि  Prashant Kumar Dwivedi

अल्हड़ कवि

Prashant Kumar Dwivedi

इक घुटन कुरेदी जायेगी,कुछ दर्द संवारे जाएँगे।
अनगढ़ से अहसास सभी कागज पे उतारे जाएँगे।

तुम्हारे आँचल पे न निछावर हों तो फिर, 
कहो, कहाँ ये चाँद-सितारे जाएँगे।

तुमने भी जो पर्दा करना शुरू किया, 
हम तो फिर बेमौत ही मारे जाएँगे।

मयखानों की मय अब फीकी लगती है,
इन आँखों से अब प्याले ढारे जाएँगे।

इश्क़ में रुखसत-ए-आदाब यही है, 
पहले तुम हम बाद तुम्हारे जाएँगे।

जो डूबने की चाहत से उतरे दरिया में, 
देखना आखिर वही किनारे जाएँगे।

पैरों के बूते ये डगर तय करनी है, 
कितनी दूर किस्मत के सहारे जाएँगे।

हम दीवानों के सुर्ख लहू की स्याही से, 
कल हूरों के रूप निखारे जाएँगे।

जिन फकीरों पर आज पत्थर बरसे हैं,
कल उन्हीं के बुत के पाँव पखारे जाएँगे।

खुदा मेरा महबूब है,ये जो कह दें हम, 
तो काफिर हम लोग पुकारे जाएँगे।

महख़ाने भी लगे पूछने मज़हब तो, 
कहाँ भला फिर हम बंजारे जाएँगे।

सन्नाटों की चीख, भीड़ का सूनापन,
यही तो हैं जो साथ हमारे जाएँगे।

हमको भी गर खुदा रौशनी बख्श दे तो, 
किसके हिस्से में अँधियारे जाएँगे।

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