आखिर मान लूँ कैसे? Prashant Kumar Dwivedi
आखिर मान लूँ कैसे?
Prashant Kumar Dwivediचिंतन प्रखर जो न करे वो ज्ञान लूँ कैसे।
जो सच नहीं है वो भला मैं मान लूँ कैसे।
तुम्हारा अंश ही तो है मेरे अस्तित्व का सम्बल,
स्वयं से ही स्वयं का प्रमाण लूँ कैसे।
शून्य भी विस्तार भी,निःशब्द भी और नाद भी,
भेद आखिर मैं तुम्हारे जान लूँ कैसे।
तिमिर एकाकीपन की वेदना से यदि सिसकता हो,
तो माँग तुमसे रश्मि का वरदान लूँ कैसे।
ये ह्रदय की अग्नि ही है चेतना मेरी,
तो कहो सामाधि का व्रत ठान लूँ कैसे।
अधिकारों की विवशता पर रुदन कैसे न हो
संभाल मैं ये ह्रदय का तूफान लूँ कैसे।
वो विचारशून्य थे,मैं मूर्ति अंतर्द्वंद की,
उन संतों का भला स्थान लूँ कैसे।
सृजन की आत्मा बसती है मेरी लेखनी में तो,
मौन रहकर सर्जना के प्राण लूँ कैसे।