सोच लेना ऐ भँवरे! Prashant Kumar Dwivedi
सोच लेना ऐ भँवरे!
Prashant Kumar Dwivediदेखना है इश्क़ में लुत्फ़-ओ-ख़ुमार कितने हैं।
वीरान जिंदगी में मौसम-ए-बहार कितने हैं।
यूँ तो हर मोड़ पर दोस्त हज़ारों मिलते हैं,
आज ग़म में हूँ देखूं,मेरे यार कितने हैं।
इश्क़ की दरिया के बीच में बैठे हैं हम।
इधर तन्हाई का ग़म,उधर जुदाई का ग़म।
मैं हार गया जिंदगी अब तू ही बता दे,
कि इस पार कितने हैं और उस पार कितने हैं।
बिना सोचे समझे भँवरा करे ये कैसे भूल।
गर मँडराना चाहे भी तो चुने कौन सा फूल।
जाने से पहले उस चमन में सोच लेना ऐ भँवरे,
कि इक-इक फूल पे तेरे जैसे पहरेदार कितने हैं।
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ये हाई-स्कूल में लिखी एक ग़ज़ल के बाद बड़े लंबे अंतराल पर लिखी संभवतः मेरी पहली रचना है!जोउस दौर में लिखी थी जब प्रेम जैसा रोग हमारे आस-पास न था,बस अल्हड़ फ़्लर्ट,मासूमियत और आवारापन!भँवरे को आलंबित कर लिखी ये कविता,पता नहीं कविता है भी या नहीं!पर मेरे दिल के करीब है!