प्यास के उस छोर पर  Prashant Kumar Dwivedi

प्यास के उस छोर पर

Prashant Kumar Dwivedi

प्यास के उस छोर पर क्या है न जाने,
कल्पना जाकर वहीं ठहरती है,
इस छोर से उस छोर के पागल सफर में
एक जीवन और न जाने स्वप्न कितने,
ठीक वैसे ही कि जैसे दर्पणों से घिरा मैं,
देखता प्रतिबिबिम्ब अपनी कामना के,
एक जिसमें प्रेयसी की गोद में,
सर दिए मैं सो रहा हूँ!
उसकी बाहें घेर मेरी वक्ष-ग्रीवा, सौंपती हो स्वर्ग का अधिकार जैसे,
चुम्बनों की वृष्टि हो अविरत बरसती, भीगता अमृत में मेरा तृषित ये तन!

एक जिसमें हृदय का जलता भभूका, पी रहा बड़वानलों को निमिष में ही,
अट्टालिकाएं तोड़कर मैं हर कृषक को बाँटता अधिकार हूँ, सौ एकड़!!
दो सौ एकड़, हजार एकड़!!
ले लो !!
जिसने भी तुमको डराया था कभी भी, आज पीकर रहूँगा उसका लहू मैं!
आँख से गिरती मेरे चिंगारियां है, बरसती संसार की विषमता पर!!!
और न जाने रूप कितने,और छवियाँ दर्पणों में कैद ही दम तोड़ती हैं!!!
किन्तु इन छवियों से मैं थका-हारा,
और घायल हृदय की तृषा लेकर,
ढूंढता हूँ प्यास के उस छोर को
मैं !!

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