एक स्वप्न : परिवर्तन के बीज  Prashant Kumar Dwivedi

एक स्वप्न : परिवर्तन के बीज

Prashant Kumar Dwivedi

एक पंछी जिसको नभ ना मिले तो फिर,
एक दरिया क़ैद हो जो बाँध पीछे,
एक अँधियारा तरसता हो दिए को,
एक आँसू जो रुँधा हो गले में ही,
एक कविता हृदय से जो चल चुकी हो,
और न पहुँची हो वो काग़ज़ पे तो फिर,
एक सावन हो उमड़ता आत्मा में,
और प्रेयसी दूर बैठी बहुत रूठी,
एक पागल मन अगर चीत्कार उठे,
सभ्यता का बोझ ओढ़े मूढ़ तन में,
एक मधुशाला बहे हर एक नस,
होश में होने की फिर भी बंदिशें हों,
रात की नींदों होती हो बग़ावत,
और तन की कामना विश्रान्ति की हो,
ठीक से देखो ज़रा!!
बस यही तो संकेत हैं,सो रही वेदनाओं के रुदन का!!
क्रान्ति की शिशुता के ये तोतले
से बोल हैं!
मगर सत्य निरीह है,
और बहुत ही नृशंस है!
तोड़ देगा पंख पंछी के, सूख जायेगा वो असहाय दरिया,
मौन हो जायेगी कविता कवि की,
फिर कभी न मिलन होगा प्रेयसी से,
और मन को कुचल देंगी सभ्यताएं,
अरे नहीं!
नहीं, रोको, ये सब होने से ,
ये पीड़ाएँ नहीं मिटनी चाहिए, ये ही परिवर्तन का आधार हैं,
क्रान्ति के सन्देश हैं।
नहीं ये मिट नहीं सकतीं, मर नहीं सकतीं,
मेरे मिटने से पहले, मेरे मरने से पहले,
लो मैं मर गया!!
मैं मर गया!!
उफ़्फ़,
शुक्र है ये स्वप्न था,बस एक डरावना स्वप्न!!

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