रणभेरी DEVENDRA PRATAP VERMA
रणभेरी
DEVENDRA PRATAP VERMAबज उठी समय की रण-भेरी
अब रण कौशल की बारी है,
हार मिले या जीत मिले
कर्तव्य प्रथा ही प्यारी है।
साहस किसमे है कितना
किसमे कितना विश्वास भरा,
इस महासमर मे उठती
प्रश्नों की पावन चिंगारी है।
प्रतिभाओं के सूर्य कई हैं
कई सितारों के साथी,
आगे बढ़ पाऊँगा कैसे
जुगनुओं का मैं बाराती,
अपने महिमा मंडन को
बहुत किया है व्यर्थ प्रलाप,
सार्थक करने सार्थकता को
करना होगा “वार्तालाप”।
है “असमंजस” मे चित्त मेरा
चिंता मे चित न हो जाऊँ ,
“हल्ला बोलूँ” किस कौशल से
किस कौशल से सम्मुख आऊँ।
है “प्रस्तुति” परमार्थ की
परमार्थ इसका पूर्ण है,
शील साहस धैर्य से
अब मन मेरा सम्पूर्ण है।
साथ लिए टिम-टिम जुगनू की
मैं आगे बढ़ता जाता हूँ,
लौ निचोड़ अपनी सारी
मै सूरज से टकराता हूँ।
बुद्धि विवेक का अवलोकन हो
या प्रश्नों का हो प्रहार,
अति-विनीत हो सबका मैं
प्रत्युत्तर देता जाता हूँ।
तन्मयता की ऐसी छवि पर
सोच मे पड़ा विधाता है,
मैंने लक्ष्य को साधा है
या लक्ष्य ने मुझको साधा है।
हार हो या जीत हो
बस युद्ध करने का जुनून है,
जब तक रहूँ मर्यादित रहूँ
फिर बिखर जाऊँ सुकून है।
है “अपूर्व” “शोभित” “अनंत”
इस महासमर की कांति किरण,
चहुँदिश चंचल चातुर्य लिए
स्वच्छंद विचरता ख्याति हिरण।
उस “बागेश्वर” की बाग के
हम “पल्लव” हैं “प्रतीक” हैं,
“अभिषेक” कर प्रकाश से
जिसने दिया सादर शरण।
स्मृतियाँ – यह कविता मेरे कॉलेज के एक वार्षिक टेक्निकल फेस्टिवल “Enigma-2008” से प्रेरित है जिसमें उस वर्ष विभिन प्रतियोगिताओं का आयोजन किया गया था जैसे-"वार्तालाप", "असमंजस", "प्रस्तुति" व "हल्ला बोल" । अपूर्व, शोभित, वागेश्वर, प्रतीक, अनंत व अभिषेक आदि मेरे सहपाठी इस वार्षिक प्रतियोगिता के आयोजक मण्डल के सदस्य थे। यह कविता मेरे सभी मित्रों को समर्पित है।
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ईश्वर की बनाई हुई इस सृष्टि मे कोई भी रचना अधूरी नहीं है। आवश्यकता है तो सिर्फ पहचानने की, स्वयं में विश्वास जगाने की। आत्म विश्वास ही सृष्टि से साक्षात्कार का प्रेरक है, अतः स्वयं मे विश्वास होना नितांत आवश्यक है। स्वयं को जानने की यह यात्रा संघर्षों से परिपूर्ण है और आत्म विश्वास से ही इस यात्रा को सहज बनाया जा सकता है। आत्म विश्वास के बिना लक्ष्य के प्रति एकाग्रता संभव नहीं है।