मेरी कलम तुम्हारे चित्र  Ravindra Kumar Soni

मेरी कलम तुम्हारे चित्र

Ravindra Kumar Soni

प्रेम को तुम शोभित करती, मैं गीतों से तुम्हें दिखाऊँ,
मरुथल को तुम दृश्य बनाती, मैं मरुथल संगीत बनाऊँ।
तुम अपना श्रृंगार करो, मैं शब्दों से उसे सजाऊँ,
जब अधरों की लाली पे मैं अपनी कलम चलाऊँ,
वह संयोग विचित्र, मेरी कलम तुम्हारे चित्र।
 

यदि सरोवर के गागर को तुम रंगों का सागर कर दो,
मैं अपनी कविता शब्दों से नद परिश्रम गढ़ दूँगा,
तुम उसकी सुंदरता रंग दो मैं कर्मठता सज्जित कर दूँगा।
दोनों शैवालिनी सुंदरता गाए, तब हो वर्णन सचित्र,
मेरी कलम तुम्हारे चित्र।
 

यदि रंगों की गरिमा से कली की कोमलता दिख जाए,
मेरे शब्दों से फूलों की महक सुशोभित हो जाए।
तुम पूनम उपवन को बनाओ, मैं शब्दों से चन्द्र बनाऊँ,
जब दोनों उस ओर मिले, तब बने ग्रहण पवित्र,
मेरी कलम तुम्हारे चित्र।

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