निगाहों का पर्दा कहाँ था सलिल सरोज
निगाहों का पर्दा कहाँ था
सलिल सरोजयही मत पूछा करो कि सीने का दुपट्टा कहाँ था,
ये भी पूछो कि तुम्हारी निगाहों का पर्दा कहाँ था।
कुछ हुआ है, बैचैन बड़ी हैं आज साँसें तुम्हारी,
कल भी बेटी लुटी थी तब तुम्हारी आहें कहाँ थी।
मंदिर-मस्जिद की नफ़ासत में उम्र निकल गई,
हुई रुसवा जब बच्चियाँ, तुम्हारी सदाएँ कहाँ थी।
ये मातमों का दौर ही जब चलाना था यूँ ही,
तो चुप पड़े हुए लबों की गर्म नसीहतें कहाँ थी।
गर शर्म कर सको तो करो यकीनन अब भी,
वरना गुनाह को गुनाह कहने का हुनर कहाँ था।