जबसे मैं मेरा ही न रह गया सलिल सरोज
जबसे मैं मेरा ही न रह गया
सलिल सरोजमैं ज़माने का होता चला गया,
जबसे मैं मेरा ही नहीं रह गया।
तुमको अब मैं सुनाऊँ भी क्या,
बचा ही क्या मैं सब कह गया।
निगाहों में कैसे कोई ठहराए,
हया आँसुओं के साथ बह गया।
ये आदतों में उसकी शामिल है,
ज़ुल्म ही तो था सो वो सह गया।
नींव मजबूत होनी ही चाहिए थी,
इमारत कमज़ोर थी सो ढह गया।