पसीने से तरबतर भोर है कैसा सलिल सरोज
पसीने से तरबतर भोर है कैसा
सलिल सरोजये तन्हाईयों का गूँजता शोर है कैसा,
हर ओर छाया कुहासा घनघोर है कैसा।
मस्जिद से अज़ान तो आती ही रही,
फिर इंसानों में छिपा हुआ चोर है कैसा।
हुकूमत तो सब्ज़बाग ही दिखाती रही,
कौम के सीने पे चलता जोर है कैसा।
रोशनी की तानाशाही ही जब हो रही,
फिर निगाहों में अँधेरा हर ओर है कैसा।
भाषणों में दिन रात गठजोड़ हो रहा,
फिर साबुत रिश्तों का टूटा डोर है कैसा।
रात भर चाँदनी शीतलता उड़ेलती रही,
फिर पसीने से तरबतर ये भोर है कैसा।