गर्दन भी रोज़ दबाता है सलिल सरोज
गर्दन भी रोज़ दबाता है
सलिल सरोजवो जादूगर है, क्या खूब जादू दिखाता है,
ज़ुल्म करके अमन की फसल उगाता है।
क्यों न कोई लुट जाए उसकी इस सादगी पे,
दबी ज़ुबाँ को लोकतंत्र की शाख बताता है।
मज़हब का रंग भी क्या खूब उकेरा है,
कत्ल करके जीने की चाह सिखाता है।
आसमान भी परेशान है उसकी तीमारदारी से,
अमावस करके पूनम की रात दिखाता है।
भेष बदलकर इतिहास भी बदल देगा वो,
तल्ख़ मिज़ाज़ों से कबीर के दोहे सुनाता है।
कोई कहे भी तो अब क्या कहे भी उससे,
सर ऊँचा रखता है पर गर्दन भी रोज़ दबाता है।