साक्षात्कार DEVENDRA PRATAP VERMA
साक्षात्कार
DEVENDRA PRATAP VERMAरात्रि का प्रथम पहर,
टिमटिमाते प्रकाश पुंजों से
आलोकित अंबर,
मानो भागीरथी की लहरों पे
असंख्य दीपों का समूह,
पवन वेग से संघर्ष कर रहा हो।
दिन भर की थकान गहन निद्रा में
परिणत हो स्वप्न लोक की
सैर करा रही थी,
और नव कल्पित आम्र-फूलों की
सुगंध लिए हवा धीमे-धीमे
गा रही थी।
कुछ विस्मृत कुछ अपरिचित सा,
किन्तु फिर भी परिचित सा,
कहीं से उठा वेदना का करुण स्वर,
निद्रा को आहत कर के चला गया;
सुप्त हृदय के अंतस में
मानो पीड़ा का दीपक जला गया।
नेत्र खुले तो दृश्य का दर्शन विचित्र था !
स्वप्न नहीं किन्तु स्वप्न सा चित्र था।
सुलक्षिणी, ओजस्विनी,
ममतामयी तेजस्विनी,
परम पुनीत, सम्पूर्ण,
किन्तु क्यों अश्रुपूर्ण ?
संवेदनाओं का पुष्प
प्रश्नों के झंझावात में
हिलोरें खा रहा था
और उस विरहणी की व्यथा में
हृदय विदीर्ण हुआ जा रहा था।
चित्त की जिज्ञासा ने जब
अपनी दृष्टि खोली;
तो वेदना की मारी
वो विलापिनी बोली,
सृष्टि के अस्तित्व की
पवित्र आत्मा हूँ,
मैं एक माँ हूँ!
मैं एक माँ हूँ!
मैं एक माँ हूँ!
जिसने जीवन को दिया है जीवन,
और जिया है गौरव पूर्ण जीवन,
नहीं छू सकी कभी मुझे
दुख की दैवीय बयार,
लाल मेरे खड़े थे सम्मुख,
प्रतिक्षण तत्पर रहे तैयार।
किन्तु कालगति की कुटिल कृपा से
वैभव मेरा क्षीण हुआ,
स्वछंद विचरता मन मयूर
जब जंजीरों मे धीर हुआ।
तब उपवन के प्रत्येक सुमन से
खेतों की हरियाली तक;
पनघट की पगडंडी से
चूल्हे की रखवाली तक,
बचपन की चंचल चितवन से
धुँधलाते चक्षु प्रखर तक,
हुए समर्पित जीवन कितने,
मातृ-ऋण की पूर्ण पहर तक।
मन मयूर को मिली मुक्ति
सपुष्प सुमन उपवन महका,
लाल लहू के छींटो से लथपथ
माँ का आंचल चमका ।
कैसी थी वह भक्ति भावना
कैसा था वह स्नेह समर्पण,
व्योम पुंज भी निस्तेजित थे
जिनके आभा की लौ पर।
स्मृति के पन्नों पर जब वे
बीते अक्स उभरते हैं;
अंतस की पीड़ा के प्रहरी,
आँसू झर-झर बहते हैं।
स्नेह सुधा का साज़ नहीं
क्यों अश्रु-धार से अलंकृत हूँ?
है सकल साकार प्रतिष्ठा
किन्तु हृदय से वंचित हूँ।
यदि शैल-सिंधु, सरोवर-सरिता,
के अंतस की अनुपम कविता;
निष्काषित होगी अपने ही,
हृदय पुष्प के चित्त सुधा से।
ममता क्यों न लज्जित होगी,
संस्कारों की ऐसी विधा से।
हे वीर सपूतों अब तो सुन लो
ममता के अश्रु पुकार रहे,
यह कहकर वह करुण क्रंदिनी
दृष्टि पटल से दूर हुई।
प्रश्नों का साम्राज्य लिए
फिर मानो उजली भोर हुई,
उस करुण वेदना के तम में
जब हृदय विभोर हो जाता है,
तीन रंग का किरण पुंज
तब मार्ग प्रशस्त कर जाता है।
तीन रंग का किरण पुंज,
तब मार्ग प्रशस्त कर जाता है।
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जब एक देश भक्त जिसने कभी मृत्युपर्यन्त तक देश के प्रति अपने कर्तव्यों के निर्वहन की सौगंध उठाई थी, अपने ही देश को भूल जाता है और देश और राष्ट्र से इतर अपनी दुनिया मे कहीं खोया रहता है तो उसकी अंतर-आत्मा स्वयं माँ भारती का रूप धारण कर उससे साक्षात्कार करती है और अपनी व्यथा व्यक्त करते हुए जिन भावों से उसे जगाने का प्रयास करती है, यह कविता उसी को समर्पित है।