रातों को छत पे बुलाते क्यों रहे सलिल सरोज
रातों को छत पे बुलाते क्यों रहे
सलिल सरोजजब मोहब्बत थी तो छुपाते क्यों रहे,
आग समंदर में फिर लगाते क्यों रहे।
जब जाना था ज़माने में रुसवा करके तो,
भरी महफ़िल में हक़ जताते क्यों रहे।
एक जुदाई भर की तुम्हारी हद थी तो,
हर मौसम मुझे अपना बताते क्यों रहे।
जब खत्म ही हो गया था सब राब्ता,
बताओ कि मेरे ख़्वाबों में आते-जाते क्यों रहे।
जब गए तो मुड़ कर भी नहीं देखा तो,
अब तक मेरी तस्वीर से गले मिलाते क्यों रहे।
तुमने तो ना आने की कसमें खाईं थी तो,
चाँद बनके रातों को छत पे बुलाते क्यों रहे।