औरत होने का समीकरण सलिल सरोज
औरत होने का समीकरण
सलिल सरोजघर के काम-काज से
निपट कर
औरतें
दोपहर में
क्या बातें करती होंगी,
शायद
अपने पतियों की तंगी हालत,
बच्चों की पढ़ाई का खर्चा,
ससुर का इलाज,
सास के ताने,
ननद के बहाने,
देवर के सताने
के बारे में ही
बातें करती होंगी।
पर
जो
नहीं कर पाती होंगी
वो है
अपने शरीर का भट्टी होते जाना,
अपने सपनों का राख बनते जाना,
अपने अरमानों को खाक करते जाना।
पर वो ऐसा क्यों नहीं सोच पाती,
उन्हें "शिक्षा" दी गई है
तुम नारी हो,
तुम बलिदान हो,
तुम्हें भूखी रहना है,
हर दुख सहना है,
और घुट के
एक दिन मर जाना है,
और इस "शिक्षक" समाज की
हेडमास्टर भी नारी है,
ये बिडम्बना बहुत भारी है।
इसी ऊहापोह में
नन्ही बच्चियों को
एक बार फिर
भट्टी बनाने की तैयारी है।