जीवन और मृत्यु  सलिल सरोज

जीवन और मृत्यु

सलिल सरोज

समय के कालखण्ड पे
जीवन-मृत्यु
एक ही परिधि पे
घूमते हुए,
तर्क-वितर्क करते हुए,
सहगामी हैं।
जहाँ
एक की परिभाषा
दूसरे के अभाव में शून्य है,
जहाँ
दूसरे की उत्पत्ति
पहले के बगैर
बिलकुल ही मूर्धन्य है।
 

जीवन को महिमामंडित
करने का चक्र,
समयातीत से चला आ रहा है,
जीवन का मृत्यु पर
असार्थक प्रभाव मढ़ा जा रहा है।
जीवन गर नए पुष्प खिलाती है
तो मृत्यु कालचक्र से मुक्त कराती है,
जीवन अगर सौम्य सुधा है,
तो मृत्यु दूर कर देती हर दुविधा है।
 

जीवन की सत्यता,
जीवन की प्रामाणिकता,
मृत्यु ही तय करती है,
भीष्म की इच्छामृत्यु
जीवन को जीत गई,
और सारे जग में
अमिट होती यह रीत गई।
 

जीवन को जीत का पर्याय
और
मृत्यु को हार का प्रमाण मानना
किंचित भी श्रेष्ठकर नहीं है।
 

जिसे जीवन मिला है
उसे मृत्यु भी स्वीकार करना होगा,
जीवन की दीर्घायु और अल्पायु
मृत्यु को ही तय करना होगा।
 

मानव जीवन और मृत्यु
दोनों को तैयार रहे,
जीवन जिस उल्लास से जीता है
मृत्यु का भी उतना सत्कार करे।
 

जिससे जितना डरोगे
वो उतना ही डराएगी,
भुजाओं में जकड़ लोगे तो
साँसों में बस जाएगी।
 

यही मानव धर्म है
और शाश्वत मर्म है,
जीवन और मृत्यु
दोनों को निरपेक्ष भाव से
आत्मसात किया जाए,
बिना किसी भेद-भाव के
यह सुधा और गरल
साथ-साथ पिया जाए।

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