बलात्कार से पहले और बलात्कार के बाद  सलिल सरोज

बलात्कार से पहले और बलात्कार के बाद

सलिल सरोज

बलात्कार से पहले तक
मेरे जिस जिस्म से
हिना की खुशबू आती थी,
जिसे मैं आईने के सामने
घण्टों निहारती थी,
कभी होंठ, कभी गाल,
कभी आँखें, कभी वक्ष,
कभी नाभि, कभी नितंब
तो कभी योनि को छूकर
खुद पर नाज़ करती थी।
मुझे मालूम था
मेरे जिस्म की खूबसूरती
इस दोगले समाज में
मेरी नियति तय कर देगी,
किसी रईस घर के
दरवाजे मेरे लिए खोल देगी,
मेरी माँगों में
समाज-स्वीकृत सिन्दूर
और
जिस्म में दिखावटी गहने भर देगी।
 

पर हमेशा ऐसा ही नहीं होता
जैसा हम सोचते हैं,
कुछ आदमी भेड़िए बनकर
लड़कियों का जिस्म भी नोंचते हैं।
मुझे बेटी कहने वालों ने ही
मुझे अपने दंभी पौरुष के तले
रौंदा है,
मैं चीखती-चिंघारती रही
और
मेरे जिस्म में जैसे
कोई तूफ़ान कौंधा है।
 

मैं किसी कूड़े की तरह
सड़क पे फेंक दी गई हूँ,
सबकी आँखें घूर कर
यही सवाल दोहराती हैं,
क्यों आधी रात बाहर गई
और
मुझे अंदर तक चीर जाती हैं।
मेरी बेटी-बच्चियाँ ठीक हैं
इसी आश्वासन से
नज़रें फिर जाती हैं।
समाज,मीडिया,सरकार
सब मुझसे
अपना मुनाफा कमाते हैं,
झूठी सहानूभूति, टीआरपी
और घड़ियाली आँसू बहाते हैं।
 

मैं अब अपने घरवालों के लिए ही
शर्म का हिस्सा हूँ,
ससुराल वालों के
किसी गुनाह के जैसा हूँ।
जिस जिस्म को देखते
आँखें मेरी थकती नहीं थी,
जिसे सँवारने में मुझे
दिन-रात दिखती नहीं थी,
आज
उसी जिस्म से मुझे
घिन्न आती है,
बदबू आती है,
हर अंग पराया लगता है,
हर अंग शर्माया लगता है।
 

मैं अपने जिस्म में ही कैद हो चुकी हूँ,
भावनाएँ शून्य और ख़्वाब मर चुके हैं,
एक ज़िन्दा लाश की स्तिथि हूँ मैं,
बलात्कार के बाद की तिथि हूँ मैं।

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