नहीं मिलता! Ravindra Kumar Soni
नहीं मिलता!
Ravindra Kumar Soniनहीं मिलती रोशनी चिरागों से,
कहीं राहत-ए-सुकूँ नहीं मिलता,
रूठी हैं खुशियाँ शायद मुझसे,
किसी सुबह से नया पैगाम नहीं मिलता।
बैठा हूँ किनारे पर कबसे,
ताक दिए किसी कश्ती की तलाश में ,
मेरे बैचैन दिल के सैलाब को
कोई मुकाम नहीं मिलता।
नहीं मिलती छाँव इन कोपल से,
अब वो शहर-ए-चमन नहीं मिलता,
धुंधला सा है जहन में अब भी,
मेरे नयनों को वो बचपन नहीं मिलता।
तैरते हैं मुद्दत से कई ख्वाब
इन आँखों में एक आस लिए,
मेरे ख्वाबों को हकीकत का
कोई दर्पण नहीं मिलता।
नहीं मिलती चाँदनी जलते मन को,
कोई ठौर किसी ओर नहीं मिलता,
दूर है बहार मुझसे शायद,
इस ढ़लते मंजर को कोई मोल नहीं मिलता।
हूँ प्यासा एक मुद्दत से
किसी साहिल की तालाश में,
मेरी प्यास को कोई जर्रा
अनमोल नहीं मिलता।