जो मेरा है मैं वह नहीं हूँ  DEVENDRA PRATAP VERMA

जो मेरा है मैं वह नहीं हूँ

DEVENDRA PRATAP VERMA

क्यों लगता है कि
मेरे अलावा भी मैं कहीं हूँ,
जबकि जो मेरा है मैं वह नहीं हूँ।
 

फट गए पृष्ठ जिन पर थे भाव लिखे,
क्षणभर को आँखों में आँसू दिखे,
वो मेरे श्रम का साकार सुंदर
गाँव में मिट्टी का कच्चा घर,
बारिश में अबकि जो ढह गया,
मेरा था पर क्या मैं बह गया?
 

क्यों लगता है कि मेरे श्रम, मेरे संकल्प
के अलावा भी मैं कहीं हूँ,
जबकि जो मेरा है मैं वह नहीं हूँ।
 

चंचल, चहकती, चमकती, दमकती
हवा में खुशबू सी उड़ती महकती,
भगिनी, सुता सखी, सजनी, सलोनी,
नैनों में छिपकर न बाहर निकलती,
दैव दारुण नियति कर गई अपहरण,
सोच में हूँ, क्यों बाकी है मेरा आवरण।
 

क्यों लगता है कि मेरे हर्ष, मेरे विषाद
के अलावा भी मैं कहीं हूँ,
जबकि जो मेरा है मैं वह नहीं हूँ।

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