मन SHRIYANSH SRIVASTAVA
मन
SHRIYANSH SRIVASTAVAमन तू बेहया है,
शर्म न लाज तुझको आती,
नासमझ तू बेशर्म है।
रस के पीछे भागता है तू,
जीभ लपलपाता है तू,
जी भर खाकर भी,
लार टपकाता है तू।
तेरी लगाम कसनी है जरूरी,
तू बन जाता मेरी मजबूरी,
तू मुझे नहीं मैं तुझे
कसकर पकड़कर चलाऊँगा,
अब मैं तेरे फेर में
ज़रा भी न आऊँगा।
तू बहुत कमीनी चीज़ है,
समय और ऊर्जा
दोनों को ऐसे लीलता है,
जैसे कि ब्लैक होल हो।
अब समझता हूँ मैं तुझे,
तू ही सारी समस्या की जड़ है,
तनिक भर में, घर-घर में,
इस शहर में, उस शहर में,
पलँग के ऊपर, टेबल के नीचे,
क्या हो रहा है?
इसकी खबर चाहिए तुझे
खूँटे से बाँधकर रखूँगा तुझे।
जाहिल मेरी बात मान जा,
इधर बैठ और ध्यान लगा,
अपनी रोटी अपनी हवा,
दूसरों की बातें जानने में,
भला तुझको क्यों मज़ा आता है ?
कट ले ! हट ले !
समाज की भलाई सोच,
मर रहा है आदमी,
अपनी जिम्मेदारी समझ।
बदबू रे बदबू ये गन्दी हवा,
याद है मुझे ये गाड़ी में,
मोटी गद्दी पर पिछवाड़ा धसाने की,
बेमौसम फर्राटा भरने की,
ये महँगी आदत तूने लगवाई।
आज देख साँस लेने में भी,
जिंदगी कम होती जाती है,
दवाई ले आया हूँ तेरी
बिलकुल सख्त है,
अब तू मेरा हुक्म बजाएगा
नौकर तू सलाम फरमाएगा !