अंध विश्वास DEVENDRA PRATAP VERMA
अंध विश्वास
DEVENDRA PRATAP VERMAयूँ तो उन दिनों
आज वाले ग़म नहीं थे,
फिर भी बहानेबाजी में
हम किसी से कम नहीं थे।
जब भी स्कूल जाने का मन
नहीं होता था,
पेट में बड़े ज़ोर का दर्द होता था
जिसे देख माँ घबरा जाती,
और मैं स्कूल नाजाऊँ इसलिए
बाबू जी से टकरा जाती।
मैं अपनी सफलता पर
बहुत इतराता,
दिन भर अपनी टोली
संग उत्सव मनाता।
बाबू जी मेरी चाल
समझ तो जाते
पर माँ के आगे
कुछ कर नहीं पाते।
एक बार की बात,
कई बरस के बाद
हमारे गाँव में
बाइस्कोप आया,
जिसे देखने को
बच्चे बूढ़े
सबका मन ललचाया।
पर बाइस्कोप देखने के समय
स्कूल की कक्षाएँ चलती
जिसके कारण हम बच्चों की
दाल बिल्कुल नहीं गलती।
पर मुझे भी बहानेबाजी के
नए प्रतिमान गढ़ना था,
इस बार पेट दर्द के बजाय
मिर्गी का दौरा पड़ना था।
पर नाटक उम्मीद से ज्यादा
नाटकीय हो गया,
मैं घुमड़ कर गिरा तो
चौखट से टकराया और
सच का बेहोश हो गया।
माँ बाबू जी बहुत घबराए
गाँव के लोग सब दौड़कर आए,
कल्लू, रग्घू, बरखा, बबली,
नीलम, गौतम और बेला
घर के बाहर मेरे लग गया
अच्छा खासा मेला।
किसी ने पानी के छीटें मारे
कोई बड़ी ज़ोर से चिल्लाया,
किसी ने पंखे से हवा दी
तो किसी ने पकड़ के हिलाया।
अपना-अपना अनुभव गाता
हर कोई नई जुगत लगाता,
अश्रुधार में माँ डूबी थी
बाबू जी का जी अकुलाता।
व्यर्थ हुए जब सारे करतब
थमा कोलाहल प्रात हुई तब
चेतनता मुखरित हो आई
मैं जागा और ली अंगड़ाई।
फिर याद आया बाइस्कोप
अभिनेता का अभिनय खूब,
आँख मूंदकर चिल्लाऊँ
फिर एक दम से चुप हो जाऊँ।
सिर के बाल पकड़कर नोचूँ
पैर पटक कर धूल उड़ाऊँ,
मैं अपने ही भरम में था
अभिनय मेरा चरम पे था।
सहसा स्वर कानों में गूंजा
मुखिया जी का शब्द समूचा,
सारा खेल बिगाड़ गया
अच्छा खासा जीत रहा था
कि एक दम से हार गया।
सब लोगों का मन टटोल
मुखिया जी दिए मुँह खोल,
जो यह बालक घबराया है
प्रेतों का इस पर साया है,
ओझा बाबा के पास चलो
वरना पागल हो जाएगा,
प्रेतों का तांडव दूर करो
बालक घायल हो जाएगा,
सबने हाँ में हाँ मिलाई
और फिर मेरी शामत आई।
भस्म रमाए औघड़ बाबा
खुद भूतों का लगता दादा,
मेरी आँखों मे आँखें डाल
मंत्र पढ़े और करे सवाल।
क्यों इसको तड़पाया है
बोल कहाँ से आया है,
जाता है कि चप्पल से पीटूँ
या धरती पर रगड़ घसीटूँ।
आँख खुली की खुली रह गई
भय से मेरी घिग्घी बँध गई,
अपनी ताकत आजमाता है
तू मुझको आँख दिखाता है।
बाबा ने चप्पल से पीटा
फिर धरती पर रगड़ घसीटा,
आग जला कर भस्म उड़ाता
धुँआ उड़ा कर प्रेत भगाता।
ठंडे पानी के छींटे मार
धोबी सा मुझे दिया पछाड़,
बड़े दर्द से मैं चिल्लाया
माँ की ओर उछल कर आया।
फूट फूट कर रोया खूब
भाड़ में जाए बाइस्कोप,
इक पल का न समय गँवाना
माँ मुझको स्कूल है जाना,
मुदित हुई माँ मुस्काई
आँचल में फिर मुझे छिपाई,
बोली धन्यवाद मुखिया को
औघड़ बाबा को सुखिया को,
भूत प्रेत को मात दिया
सबने दुख में साथ दिया।
कैसा भूत और कैसा प्रेत
सोच रहा मैं मन ही मन में,
प्रगाढ़ हुआ मेरे नाटक से
अंध विश्वास वहाँ जन-जन में।
सब मेरे ही कारण था
मैं प्रत्यक्ष उदाहरण था,
इसी भांति अंध विश्वास फैलता
भूत प्रेत स्मृति में पलता।