क्या उस असीम में जा पाओगे HARI KISHOR TIWARI
क्या उस असीम में जा पाओगे
HARI KISHOR TIWARIनदी न पूछती धारा से तुम किधर को जाओगे,
किस खेत खलिहान से अपना पथ बनाओगे,
हवा न पूछती अपने रुख से क्या-क्या संग ले जाओगे,
फूलों की खशबू न की बादलों को बहकाओगे।
सूरज न पूछता कभी किरणों से कहाँ उजाला फैलाओगे,
धरती न पूछती मिट्टी से कि तुम क्या-क्या उपजाओगे,
फिर हमें क्यों पूछने पड़ते मन से ये बार-बार हज़ार बार,
जो सोचते जो करते जो दिखते वो क्या कर पाओगे !
भावों के समन्दर में लहराते मन को क्या समझा पाओगे,
मन के पंख लगा कर क्या खुले नभ में स्वछन्द उड़ पाओगे,
जहाँ क्षितिज अपनी बाँहों को फैला रखा मुक्त वितानों में,
हे मानव क्या तुम उनकी तरह उस असीम में जा पाओगे।