क्या तुझे भी मुझ सा दीवाना याद आता है सलिल सरोज
क्या तुझे भी मुझ सा दीवाना याद आता है
सलिल सरोजकोई क़यामत न कोई करीना याद आता है,
जब दुपट्टे से तेरा मुँह छिपाना याद आता है।
एक लिहाफ में सिमटी न जाने कितनी रातें,
यक ब यक दिसम्बर का महीना याद आता है।
ज़ुल्फ़ की पेंचों में छिपा तेरा शफ्फाक चेहरा,
किसी भँवर में पेशतर सफीना याद आता है।
छाती, सीना, नाफ, कमर सब के सब लाजवाब,
उर्वशी, मेनका, रम्भा का ज़माना याद आता है।
जिस तरह मैं हो गया हूँ तेरे हुस्न का कायल,
क्या तुझे भी मुझ सा दीवाना याद आता है।