ग़ज़ल - मोहब्बत बिजेंद्र दलपति
ग़ज़ल - मोहब्बत
बिजेंद्र दलपतिजंग-ए-मोहब्बत में जीत कैसा, हार कैसा है,
बशर्त प्यार हो तो, ना जाने ये प्यार कैसा है।
अश्म-दिल में भी भर दे जान, दो लफ्ज़ मोहब्बत के,
धड़कनें तेज़ ना कर दे जो, वो इज़हार कैसा है।
पहली नज़र में ही मेरे दिल के तुम हक़दार बन गए,
फिर तुम्हें इश्क के न्योते का, इन्तेज़ार कैसा है।
ठुकरा के इश्क मेरा, फिर गले लिपट जाते हो,
गँवारा ना है दूरी हमसे, तो इनकार कैसा है।
कभी इनकार करते हो, कभी इक़रार करते हो,
समझ आता नहीं, इश्क में, तेरा क़िरदार कैसा है।
बेवफ़ा कह के मुझसे दूर तू भाग जाता है,
रोज़ फिर मुझसे मिलने को तू बेक़रार कैसा है।