मैं नन्ही मुस्कान तुम्हारी DEVENDRA PRATAP VERMA
मैं नन्ही मुस्कान तुम्हारी
DEVENDRA PRATAP VERMAमैं नन्ही मुस्कान तुम्हारी
मुस्कानों की वजह न छीनो,
सोन परी की कथा कहानी
नानी माँ की जुबां न छीनो।
दादी-दादा, चाची-चाचा
भैया-भाभी, काकी-काका,
सांझ ढले आँगन में जमघट
रिश्तों की मखमल गर्माहट,
जीवन में नवप्राण भरे जो,
आँगन की वो हवा न छीनो।
तुमने पगडंडी पर चलकर
खेतों की हरियाली देखी,
रिमझिम सावन की फुहार में
मदमाती पनियारी देखी।
सरसों के पीले फूलों से
धरती का श्रृंगार किया,
नन्हे मुस्काते बिरवे से
घर आँगन गुलज़ार किया।
फुलवारी में हरित कला की
बलखाती सी लता न छीनो।
बरगद पत्थर पीपल पूजा
नीम आम से भरा बगीचा,
शीतल पवन चले पुरवाई
अमराई में रात बिताई।
उन रातों में खलिहानों की
रखवाली की सजा न छीनो।
भेदभाव का भाव था गहरा
जात-पात का कड़ा था पहरा,
फिर भी जब विपदा आती
दर्द में काया डूबी जाती ,
गाँव समूचा मदद को आता
राहत की चादर दे जाता।
नींद मधुमयी आती फिर तो
हवा बसंती गाती फिर तो,
उन गाँवों के अपनेपन की
ऐसी पावन फिजा न छीनो।
कोयल कूके नित आंगन में
गौरैया की फुदकन घर में,
पंख फैलाये मोर नाचते
पपीहा गाये कुंज कानन में।
रात्रि अमावस में चंदा से
सूना होता है जब अम्बर,
धरती पर नन्हे दीपों की
जुगनू लहराते हैं चादर ।
दृश्य सुनहरे तुमने देखे
मुझसे उनका पता न छीनो।
ताल तलैया पोखर सूखे
बदरा जैसे नभ से रूठे,
धूल भरा है शहर तुम्हारा
नभ से बरस रहा अंगारा।
छाया वाले पेड़ कट गए
पथिक राह में गिरे निपट गए।
छद्म क्षुधा की रार रही है
हवा जलाकर मार रही है।
प्रकृति कहती सुनो ध्यान से
वसुंधरा की धरा न छीनो।
मैं नन्ही मुस्कान तुम्हारी
मुस्कानों की वजह न छीनो।
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आधुनिकता की अंधी दौड़ में अपनी आने वाली पीढ़ी को बीते खुशहाल ग्राम्य जीवन की झलक दिखाते हुए उम्मीद करते हैं कि अपने आने वाली पीढ़ी को ग्राम्य जीवन के वो सब अनुभव दे पाएँ जो हमने किए। जो आज भी हमारी मुस्कान का कारण है। हमारे बच्चों को भी हमारी तरह संयुक्त परिवार की झलक मिले। उन्हें भी हमारी तरह प्रकृति का वास्तविक अनुभव प्राप्त हो।