ज़िन्दगी केवल ही शर्त नहीं  सलिल सरोज

ज़िन्दगी केवल ही शर्त नहीं

सलिल सरोज

मैं ग़ुलाम हूँ
मेरी ही शर्तों का,
जो मैंने कर दिए थे
फिसलती ज़ुबाँ से,
जिसकी सतह पर
आज तक भी
सच की नींव
नहीं टिक पाई है।
 

अब ये ग़ुलामी
मुझपर
इस कदर हावी है
कि,
मेरे वजूद का खोना
तो लगता
अवश्यम्भावी है।
 

क्यों
अपनी ही नियति के
हम ग़ुलाम हो जाते हैं?
आदर्शों के मापदंड
सब तमाम हो जाते हैं,
अनमने से बुत्त बने रहना
रोज़ाना के बस
काम हो जाते हैं।
 

हमारी लालसा,
हमारी महत्वाकांक्षा
क्यों
हमारी ज़िन्दगी से भी
बड़ी हो जाती है,
जिसे हासिल करने
की चाहत में
सब रिश्ते,घर-बार,
मुर्दा सी हो जाती है।
 

क्या प्रयोजन है
ऐसे शर्तों का
कि
मैं हर क्षण
ऐसे बंधन में हूँ
जिसका कोई
मूल्यांकन नहीं,
जिसका कोई
सत्यापन नहीं,
बस
समाज की परिपाटी पर
टिकने के लिए
एक नीति है,
एक प्रणीति है,
जिसकी धुरी पर
मैं ही
पिसता रहता हूँ,
रोज़ नासूरकी तरह
थोड़ा-थोड़ा
रिसता रहता हूँ।
 

गर ये शर्त
खत्म हो गए
तो क्या हम भी
खत्म हो जाएँगे?
शायद नहीं
क्योंकि
ज़िन्दगी
केवल ही शर्त नहीं
वरन सम्मान भी है।

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