समाज Shubham Amar Pandey
समाज
Shubham Amar Pandeyहुआ है क्या समाज को
गति है अन्धकार को,
नीचता है दिख रही
दुष्टता भी बढ़ रही।
कपाल लोभ बढ़ रहा
मगज षड्यंत्र गढ़ रहा,
हृदय में अब न आस है
आदमियत भी अब निराश है।
अर्थ के ही सब मायने हैं
ईमान ताख पे पड़ा,
धुंध सा अब छा रहा
इख्लास सुदूर है खड़ा।
लोगो में बसा प्यार है
नयन में ये निगार था,
लहू में ही संस्कार है
क्या केवल ये गुबार था ?
फ़क्र अब गुनाह है
रईसी ही खुदा है,
समाज में भेद हो गया
इंसान मजहबों में बँट गया।
दरिया में धार बढ़ गयी
साहिल भी कही खो गया,
स्थिति प्रलय की बन रही
आफ़ताब भी लाल हो गया।
इस प्रलय को टालने हेतु
इकरार अब ये करो,
फ़ुवाद प्रेम गढ़ लो
संस्कार फिर जीवित करो।