अब मेरी समझ में आता है सलिल सरोज
अब मेरी समझ में आता है
सलिल सरोजतुम क्या थे मेरे लिए, अब मेरी समझ में आता है,
बादल छत पर मेरे, बिना बारिश गुज़र जाता है।
मेरा घर, मेरे घर की दीवारें और चौक-चौबारे,
बिना तेरे अक्स के चेहरा सब का उतर जाता है।
सबकी गलियाँ हैं रौशन आफ़ताबी शबनमों से,
चाँद मेरी ही गली में ही बुझा-बुझा नज़र आता है।
तुम थे तो सब नज़ारे सावन से भींगे-भींगे लगते थे,
अब तो निगाहों में बस पतझड़ का मंज़र आता है।
कितने गुलाब खिला करते थे तुम्हारे हसीं लबों पे,
तेरे बग़ैर सब्ज़ बाग़ में बस सूखा शज़र आता है।