जितना हो सके, आसमाँ छेकते रहिए  सलिल सरोज

जितना हो सके, आसमाँ छेकते रहिए

सलिल सरोज

जब तक देख सकते हैं, देखते रहिए,
दूसरे की आग पर रोटी सेकते रहिए।
 

बाज़ी किसकी होगी, किसको पता है,
पर छल-कपट का पासा फेंकते रहिए।
 

अपनी-अपनी छतें और ऊँची कर लें,
जितना हो सके, आसमाँ छेकते रहिए।
 

सारा किस्सा है इश्तहारों का जनाब,
खुद को दूसरों से ज्यादा आँकते रहिए।
 

सच की तलब किसको पड़ी है यहाँ पर,
अलबत्ता झूठ का चूरन फाँकते रहिए।
 

आप सियासतदाँ हैं, हंगामा तो करेंगे ही,
सर्द ज़मीं पे आग की लपट टाँकते रहिए।

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