तुम क्यों उलझे-उलझे रहते हो  Shubham Amar Pandey

तुम क्यों उलझे-उलझे रहते हो

Shubham Amar Pandey

तुम क्यों उलझे-उलझे रहते हो,
तुम क्यों उलझे-उलझे रहते हो।
 

बातें तुम्हारी हवा के जैसी
नित प्रतिदिन दिशा बदलती हैं,
पथ एक पकड़कर चलते हो
तो दूजी राह बिफ़रती है।
सरिता के तट पर बैठे हो
पर लहरों में ही उलझे हो,
तुम क्यों उलझे-उलझे रहते हो।
 

तुम क्यों दूर्बोध बने फिरते हो
थोड़े सरल तो बनकर देखो,
हिम चट्टानों से क्यों रहते हो
सरिता से तो बहकर देखो।
छोड़ कली, तितली, सुमनों को
तुम काँटों में ही उलझे हो,
तुम क्यों उलझे-उलझे रहते हो।
 

राजमहल की अभिलाषा में
प्रीत भरी वो डोर टूट गई,
जिन राहों से चलना सीखा
वे राहें अब कहाँ छूट गईं।
छोड़ पुरानी उन राहों को
तुम इन गलियों में ही उलझे हो,
तुम क्यों उलझे-उलझे रहते हो।
 

उप्पलव जब भी होता है
आकाश नहीं है शोक मनाते,
हम तो उनकी संतति हैं जो
कुहू को भी है दीप जलाते।
छोड़ धरा की आभा को
तुम रात अंधेरी में उलझे हो,
तुम क्यों उलझे-उलझे रहते हो।
 

प्रणय गीत की बेला पर भी
विरह गीत तुमको भाते हैं,
कई पुराने घाव तुम्हारे
असमय ही डेरा डाते हैं।
छोड़ के इस स्वर्णिम क्षण को
आतीत की यादों में उलझे हो,
तुम क्यों उलझे-उलझे रहते हो।

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