मत समझो कि ये घना कोहरा है सलिल सरोज
मत समझो कि ये घना कोहरा है
सलिल सरोजमत समझो कि ये घना कोहरा है,
तुम्हारे ख्वाबों पे सख़्त पहरा है।
जो दोस्त हैं, वही दुश्मन तो नहीं,
सियासत का राज़ बहुत गहरा है।
खेल तो कोई और ही खेल रहा है,
किसान बस अदना सा मोहरा है।
फकीरी की हद नहीं है तो और क्या,
लोकतंत्र गरीबों की लाश पे ठहरा है।
चीखों से अब सत्ता नहीं हिला करती,
कहने वाला गूँगा, सुनने वाला बहरा है।
कैसे पहचान पाओगे इस गफलत में,
आखिर सच का कहाँ अपना चेहरा है।