सामान्य सलिल सरोज
सामान्य
सलिल सरोजसामान्य रहना कोई तिलिस्म नहीं
लेकिन थोड़ा कठिन ज़रूर है,
जब आदमी
पद, प्रतिष्ठा और नाम के
अभिमान, अहंकार और गुरूर से भरा होता है।
अहंकार का विसर्जन
गाँधी की तरह,
अपने आँखों के सामने
सबसे निरीह की तस्वीर
याद कर के,
और उसकी हालत से स्वयं की तुलना कर के की जा सकती है
और यह प्रयास क्षणभंगुर नहीं
बल्कि शाश्वत है।
क्योंकि इस प्रयत्न में
मनुष्य को परिणत होना पड़ता है,
उस जीव में जिसे
वह दुत्कारता रहा है,
लिलियाता रहा है,
गरियाता रहा है।
जो उसके लिए
एक पशु से बढ़ कर कुछ और नहीं रहा,
जो उसके लिए किंचित महत्त्व नहीं रखता,
ना ही उसका जीना और ना ही उसका मरना
और जिसके होने या न होने से उसको कोई फर्क नहीं पड़ता,
और ना ही उसके जीवन की कोई उपयोगिता समझ में आती है।
वह बस केवल एक नाम है या शायद नाम भी नहीं
बस एक परछाई है,
एक स्याही है
समाज के शालीन चेहरे पर दाग की तरह,
जिसे मिटाने की तमाम कोशिशें
हर सरकार के द्वारा की जाती हैं,
लेकिन ना जाने कहाँ से
वह फिर कुकुरमुत्ते की तरह उग आता है
और छेक लेता है
सभ्य समाज की सारी विरासत,
और गंदगी फैलाता है अपने होने की और अपने बढ़ते जाने की।
स्वयं को इस दशा में पाकर
हर मुनष्य उस पीड़ा का अनुभव करता है,
जो दूर होकर एक मजाक का पात्र होता है,
किसी शानदार पार्टी में हँसी ठहाके के लिए इस्तेमाल होता है,
या बड़ी-बड़ी कॉन्फ्रेंस में लेक्चर के रूप में तब्दील होता है,
और मंत्रियों के भाषण में समापन की
अंतिम पंक्ति के अंतिम शब्दों में प्रयोग होता है
वोट जुटाने के लिए,
नाकि समस्याओं के निवारण के लिए।
तब जाकर लगता है
गाँधी सही कहता था, कि
मनुष्य को मनुष्य ही समझा जाए
ना कि ऊँचा और नीचा, अमीर और गरीब, मालिक और नौकर,
और फिर मन में बसा सब मैल पिघलने लगता है
और सामान्य होने की प्रक्रिया फलीभूत होने लगती है।