प्रेम का दीप  DEVENDRA PRATAP VERMA

प्रेम का दीप

DEVENDRA PRATAP VERMA

प्रेम का दीप लेकर अकेला चला
मीत मन का कभी भी न मेरा मिला,
घुप अँधेरों से बाहर निकल तो गया
पर न सूरज दिखा न सवेरा मिला।
 

पाँव छाले पड़े सारा तन जल गया
जिस्म से छूट कर रूह में मिल गया,
ख़्वाब था या मेरी हसरतों का सुमन
जिसका मुरझाना इतना मुझे खल गया।
ओस की बूँद से नम हरी घास को
मख़मली धूप का ना बसेरा मिला,
प्रेम का दीप लेकर अकेला चला।
 

एक आवाज सुनकर चला आएगा
मेरी बातों को बिसरा नहीं पाएगा,
जिस तरह मैं उसे ढूँढता फिर रहा
स्नेह की ज्योति से बच नहीं पाएगा।
प्रेम की लौ जली तो जली रात भर
दिन में दिल को नहीं साथ तेरा मिला,
प्रेम का दीप लेकर अकेला चला।
 

रूठ कर तुमसे आखिर कहाँ जाएँगे
हम जहाँ जाएँगे तुझको ही पायेंगे,
तन नहीं साथ तेरा मगर मन तो है
मन से बिछड़ेंगे तो फिर न रह पाएँगे।
प्रेम की शर्त ऐसी पिया तूने दी
ना मैं तुझको मिला ना वो तेरा मिला,
प्रेम का दीप लेकर अकेला चला।

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