प्राण-प्रिय सलिल सरोज
प्राण-प्रिय
सलिल सरोजअधरों पर कुसुमित प्रीत-परिणय
केशों में आलोकित सांध्य मधुमय,
चिर-प्रफुल्लित कोमल किसलय
दिव्य-ज्योति जैसी मेरी प्राण-प्रिय।
दृगों से प्रवाहित होता रहता हाला
वो मेरी मधुकलश वो ही मधुशाला,
मृग-पदों से कुचालें भरती बाला
प्राण-घटकों की उष्मित दुःशला।
ब्रह्माण्ड की नव-नूतन कोमल काया
मरूभूमि में आच्छादित शीतल छाया,
व्योम की मस्तक पर आह्लादित माया
मनभावन मुस्कान की वो सरमाया।
विटपों के अंगों पर जैसे कोई चित्रकारी
वायु के बाहुबलों पर द्रुत वेग की सवारी,
चहुँ दिशाओं की वो एक-मात्र पैरोकारी
वो ही रम्भा-मेनका, वो ही फूल कुमारी।
भाव-भंगिमा में देवी का अवतरण
कवि के कविता का नया संस्मरण,
किसी किताब का प्रथम उद्धरण
जिस्म से जवान, ख्यालों से बचपन।
जो भी शांतचित्त हो देख ले, विस्मित हो जाए,
इहलोक में विलीन हो जाए, चकित हो जाए,
खड़ी बोली से देवों की बोली संस्कृत हो जाए,
किसी देवालय के प्रांगण सा झंकृत हो जाए।
उसके आगमन से जीवन में इष्ट पा लिया
अपने उपेक्षित मन का परिशिष्ट पा लिया,
किसी अरुंधति ने अपना वशिष्ठ पा लिया
मूक अक्षरों ने साकार होता पृष्ठ पा लिया।
तुम्हारे होने से अपने सुकर्मों का ज्ञान हुआ
शील और सौम्य परिणति का प्रमाण हुआ,
साधारण जीवात्मा सा जीव, मैं महान हुआ,
असफलता से सफलता का सोपान हुआ।
शीश झुका का प्रतिदिन ईश-वंदन करता हूँ
अवतरित महिमा का अभिनन्दन करता हूँ,
इस अनुकम्पा का बारम्बार भंजन करता हूँ
मेरी प्राण-प्रिय, तुम्हारा अनुनन्दन करता हूँ।
मेरे सजीव होने का अनुपम आधार हो तुम
मैं जिस मंझधार में था, उसकी पतवार हो तुम,
मैं तो बस लेश्मात्र हूँ, मेरा सारा संसार हो तुम
हे प्राण-प्रिय, मेरी जीवटता का आह्वान हो तुम।