बूँदें सलिल सरोज
बूँदें
सलिल सरोजबादलों से
जो पानी बरसते हैं,
उन्हें धरती पर
आकर लेने में,
कई समीकरणों का
ख़ास ध्यान रखना पड़ता है।
धरती पर
आकाश की तरह
सब खुला-खुला
और धुला सा नहीं है,
यहाँ जो हो
वह दिखे भी
संभावना के किसी छोर पर
इंगित नहीं है।
नदी, पर्वत,
जंगल, ज़मीन
पठार, समतल,
रेगिस्तान, बर्फीले प्रदेश,
आँधी, तूफ़ान,
सब की अपनी
परिपाटी है,
जिसके विशेष क्षेत्र से
गुजरने के लिए
बूँदों को
कभी तरल,
कभी ठोस,
कभी मीठा,
कभी नमकीन,
और भी
बहुत कुछ होना पड़ता है।
बूँदों पर सिर्फ
प्रकृति का ही
दवाब नहीं होता,
बूंदों को
अपनी नियति
ज़मीन पर चल रहे
राजनीति का भी
सामना करना पड़ता है।
बूँदें,
मलेच्छ, शूद्र के घरों में गिरकर
बदबू, गटर, मैल, बीमारी बन जाती हैं,
बूँदें,
ब्राह्मणों की शिखाओं से गुजरकर
गंगा सी अवतरित हो जाती हैं,
बूँदें,
क्षत्रिय के लिए जीवन रस
और बनिए के लिए
दवा और दारू बन जाती हैं,
बूँदें
नेताओं की झोली में गिरकर
चुनावों का मुद्दा बन जाती हैं,
बूँदें,
मल्टीनेशनल कंपनियों के खाते में गिरकर
बिसलेरी, अक्वाफिना, किनले और रेल नीर बन जाती हैं।
बूँदें और भी बहुत कुछ बन जाती हैं,
मेहनतकश मजदूरों के लिए
दुःख का सबब,
अपने भाग्य को कोसती
महिलाओं के लिए
आँसू की सहभागी,
किसानों के लिए
कभी लक्ष्मी, कभी कुलक्ष्मी,
रसूखदारों के लिए
"हॉलिडे पैकेज" का नया "डेस्टिनेशन",
बॉलीवुड के लिए
फ्लॉप कहानी में हिट तड़का
और
शायरों के लिए
किसी महफ़िल की शान।
बूँदें
कहाँ तय कर पाती हैं
कुछ भी,
बारिश की बूँदें भी
शायद
अनचाही बेटियों की
जैसी ही हैं।