मैं और मेरी कविता सलिल सरोज
मैं और मेरी कविता
सलिल सरोजएक मोहतरमा कहती है मुझसे,
तुम्हारी कविता तुमसे भी ज्यादा प्यारी है।
मैं पूछता हूँ क्यों, तो
वो ये कहती है,
तुम्हारी कविता में -
लय है, ताल है,
हर मिसरा कमाल है,
सुर है, तान है,
अर्जुन के तीर की कमान है।
मदिरा है, साकी है,
काबा है, काशी है।
नदी है, चट्टान है,
पामीर की पठार है।
उलझन है, सुलझन है,
अंधे को दो नयन है।
आशा है, निराशा है,
कुछ करने की परिभाषा है।
धूप है, छाँव है,
डूबते को नदी में नाव है।
पतझड़ है, वसंत है,
इसका न आदि है, ना अंत है।
दीवाली है, ईद है,
खुशियों की रशीद है।
गहराई है, ऊँचाई है,
भावों की सच्चाई है।
प्यार है, गुस्सा है,
किल्योपेट्रा के गालों का मिस्सा है।
रोना है, हँसना है,
बात करने बहाना है।
शान्ति है, व्याकुलता है,
बच्चे की तत्परता है।
छिछला है, गहरा है,
सही बात पे ठहरा है।
देवी है, सुहासा है,
कहीं ऋषि दुर्वासा है।
खोना है, पाना है,
आने वाले वक़्त का फ़साना है।
भूत है, भविष्य है,
विहंगम परिदृश्य है।
बच्चा है, बूढ़ा है,
हर जज़्बात इसने ढूँढा है।
गोरी है, कारी है,
सबकी दुलारी है।
पर्दानशीं है, बेपर्दा है,
हर अक्षर ही नया है।
कठोरता है, दया है,
हर दिल को छू गया है।
जीत है, हार है,
लड़ने का औजार है।
जनता है, नेता है,
विश्वास का प्रणेता है।
इच्छा है, जबरदस्ती है,
इसकी अपनी ही हस्ती है।
रिश्ता है, नाता है,
जो हरेक से निभाता है।
चलता है, रूकता है,
चोरों को टूकता है।
सुन्दरी है, कुरूपा है,
इंद्र सी बहुरूपा है।
लालच है, संतोष है,
बेसहारों का रोष है।
माँ भी है, औलाद भी है,
भारत की बुनियाद भी है।
मैं बस यही कह पाता हूँ,
तुम्हारा प्यार मेरी कविता से ही सार्थक है।