चूड़ियाँ DEVENDRA PRATAP VERMA
चूड़ियाँ
DEVENDRA PRATAP VERMAहरी, गुलाबी, लाल, नीली खिली हुई हैं चूड़ियाँ,
गाँव के मेले में फिर से सजी हुई हैं चूड़ियाँ।
नोंक-झोंक मनुहार उलाहने रूठा-रूठी के बहाने,
हाय ! मेरी यादों में कितना घुली हुई हैं चूड़ियां।
एक दिन अपनी बहू को प्यार से पहनाऊँगी,
मेरी माँ ने कुछ संभाल के रखी हुई है चूड़ियाँ।
बिंदिया, कंगन, पायल, झुमके, काजल से सवाल है,
आख़िर उसने क्यों नहीं पहनी हुई है चूड़ियाँ।
क्या कोई रावण उठा कर ले गया फिर छल से,
हे राम ! ये किसकी रास्ते में गिरी हुई हैं चूड़ियाँ।
हादसा नहीं किसी की वहशियत का शिकार है,
देखो रक्तरंजित हाथ में सब टूटी हुई हैं चूड़ियाँ।
लड़ नहीं सकता अग़र तू भीतर के हैवान से,
चल दोनों हाथ में पहन ले, उतरी हुई हैं चूड़ियाँ।
कब समझ पाएगी दुनिया कैद आँखों की जुबां,
भीतर ही भीतर कब से घुटी सहमी हुई हैं चूड़ियाँ।
