किताब और फूल  Shubham Amar Pandey

किताब और फूल

Shubham Amar Pandey

बेतरतीब से कमरे की
सिलवटों को निहारते हुए,
धूल के आगोश में लिपटे
बेमतलब से सामानों के बीच
इक किताब मिली,
जिसका जिक्र यादों में भी
धुंधला हो चला था।
 

उसके सफ़्हे को पलटते ही
कुछ मुरझाए से फूल मिले
जिनकी खुशबू में इक
दौर दिख रहा था,
जिनकी महक आज भी फिज़ा को
मदहोश कर रही थी।
 

मुझको लगा ये जैसे
कल ही का वाकया है,
हाथों में किताबें,
किताबों में फूल,
यारों के ठहाके और
फिर बातों में मशगूल।
 

दिन इतनी बेतकल्लुफी से बिताते थे,
ग़म कोई मसला है
इसका एहसास भी न पाते थे।
जाने अब फूलों को किताबें
मयस्सर कब होंगी,
होंगी !
या फिर ,
यादें ही
धुंधली होगी !

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