दरीचे  Shubham Amar Pandey

दरीचे

Shubham Amar Pandey

दरीचे
अब घरों में इस तरह से हैं
कि
यादों को भी
आने में
मशक्कत करनी पड़ती है,
कोई चेहरा नज़र
आने की तो
गुंजाइश नहीं रहती।
 

अभी कल ही का
वाकया है,
किताबों संग बैठे
चाय की प्याली को
होठों से लगाते ही
वहाँ खिड़की पे इक परिचित सी
आहट सुनाई दी।
 

पलटकर गौर से देखा तो
गुज़रा वक्त था,
खनकती आवाज़ में
मुझको पुकारा,
कहा अब
नादानियाँ करते नहीं हो?
बैठते थे यूँ कभी शामों में
मेरे संग,
अब किसी की बात पर चिढ़ते नहीं हो?
एक अरसा बाद अब
जाके मिले हो,
किंतु लगता है
दरीचों पे बहुत गहरे
जाले पड़े हैं।

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